Sunday, December 6, 2009

सच खांटी सच

मौन है मीठा , मुखर तीखा
मगर बेचैन है जीभ
क्या करू ! कुछ तीखा कहने का मन है ,
कह दू कुछ - जो है तीखा पर खांटी सच
आग लगे ऐसा कटु
क्या कहू ? कह दूँ या न कहू.....................
इसलिए "अनुराग आग्नेय " कहते हैं
मेरे मुह पर मत बोलो की स्लिप लगा दो
वरना मै बोल पडूंगा
परतें डर परतें खोल पडूँगा
बेनकाब कर दूंगा
नंगा नाच नचा दूंगा
सारी औकात बता दूंगा
बांबी में हाथ अगर डाला तो ऐसा डंक लगेगा
दंश न उसका भूल सकोगे जीवन भर
सच यह है की कल रात एक धर्म के ठेकेदार ने धर्मस्थल पर :
तीन साल की बच्ची के साथ अपनी हवस मिटाई
एक माँ ने चार दाने चावल के लिए अपने दूधमुहे लाल को बेच दिया
और सच....................... मत सुनो .................. क्या करोगे !
तुम भी तो ओह! कहकर पृष्ठ पलट दोगे.....

4 comments:

अनिल कान्त said...

सही कहती हैं आप ....

विनोद कुमार पांडेय said...

आज कल लोग सच से बहुत डरते है क्योंकि जो सच से सामना करने वाले भी बस मानव का नाम लिए होता है अंदर तो कुछ और चलता रहता है...बहुत कम इंसान बचे है जो सच को अपनाए..

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

nice post

maine apney blog per ek kavita likhi hai- roop jagaye echchaein- samay ho to padein aur comment bhi dein.

http://drashokpriyaranjan.blogspot.com

Pawan Kumar said...

अपर्णा जी
बिलकुल वजा फ़रमाया आपने...जब तक आदमी भूखा है...क्या नया क्या पुराना साल......नव वर्ष 2010 की हार्दिक शुभकामनायें.....!
ईश्वर से कामना है कि यह वर्ष आपके सुख और समृद्धि को और ऊँचाई प्रदान करे.