अक्से खुश्बो हूँ बिखरने से न रोके कोई , और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई
यह शायरी है परवीन शाकिर की जो पूरी तरह आजाद रूहों को परिभाषित करती है .
इसी को याद करते हुए कुछ कहने का man कर रहा है
कहते है गुलाम जिस्म में आजाद रूह रहती है तड़पती है
कह दे जिस्मों से आजाद हो जाएँ और रूहों को जिंदगी देदें.
न जहान की चिंता हो हमें, न जान की सोचे कोई
,बस ख़ाब की दुनिया को जमीन पे उतारे कोई
ये आज तमन्ना है की कह दूं हर एक शै से
यह शायरी है परवीन शाकिर की जो पूरी तरह आजाद रूहों को परिभाषित करती है .
इसी को याद करते हुए कुछ कहने का man कर रहा है
कहते है गुलाम जिस्म में आजाद रूह रहती है तड़पती है
कह दे जिस्मों से आजाद हो जाएँ और रूहों को जिंदगी देदें.
न जहान की चिंता हो हमें, न जान की सोचे कोई
,बस ख़ाब की दुनिया को जमीन पे उतारे कोई
ये आज तमन्ना है की कह दूं हर एक शै से
1 comment:
बहुत खूब ...
आजादी की चाह ...
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