Wednesday, June 3, 2009

तुम कहते हो

तुम कहते हो
क्यों नही मिलती हूँ मै मुस्कुराती हुई तुम्हारे घर पहुँचने पर,
क्यों नही गुनगुनाती रहती हूँ मै
घर के कोने कोने में संगीत बन कर ,
क्यों नही सज -धज कर खिलखिलाती रहती हूँ
अपनी हमउम्र नौयौवनाओ की भांति ,
क्यों नही दौड़ जाती हू घर के बहार
हर फेरी वाले की आवाज पर
क्योँ नही बन जाती हूँ वैसी ; जैसी
तुम्हारे घर की पडोसन
उत्साह में बार बार झांकती है तुम्हारा आंगन
??????????????????????????????
पूछो मत मुझसे कोई सवाल
आओ देखो .....
रसोई के दिन पर दिन खाली होते दिब्बे
मेरी डायरी का रोज कम होता एक एक पृष्ठ
और रात के तीसरे पहर में
मेरी आँखों से बूँद बूँद रिसता तुम्हारा घर .

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