Thursday, June 27, 2013

अक्से खुश्बो हूँ बिखरने  से न रोके कोई , और बिखर जाऊं  तो मुझको न समेटे कोई
यह शायरी है परवीन शाकिर की जो पूरी तरह आजाद रूहों को परिभाषित करती है .
इसी को याद करते हुए कुछ कहने का man कर रहा है
कहते है गुलाम जिस्म में आजाद रूह रहती है तड़पती है
कह दे जिस्मों से आजाद हो जाएँ और रूहों को जिंदगी देदें.
न जहान की चिंता हो हमें, न जान की सोचे कोई
,बस ख़ाब की दुनिया को  जमीन पे उतारे कोई
ये आज तमन्ना है की कह दूं हर एक शै से

 कहानी 

काश 
कहानी इतनी  छोटी होती 
की उसे समेट  सकती एक जिंदगी   में ,
एक ज़िंदगी जो मुस्कान सी अनोखी 
किलकारी सी मासूम और बच्चे सी नाजुक है 

काश
 कहानी इतनी लम्बी होती 
की रख पाती उसे पास 
जिससे नाप सकती पूरी धरती 
पर कहानी तो कहानी है 
जो जरुरत पड़ने पर चुक जाती है 
और जरुरत न होने पर ख़त्म ही नहीं होती .
काश
काश मै तुम्हे दे  पाती
थोड़ी सी बारिश , थोड़ी सी हवा
एक नदी की रवानी , एक फूल की कहानी
काश सौप पाती  तुम्हे
एक पूरा का पूरा मौसम
जो लहलहाता तुम्हारे खेत
काश रख पाती कुछ रोटियां तुम्हारी  थाली में
थोड़ा सा नून , थोड़ा सा तेल
बढ़ा पाती  तुम्हारी खुराक में
काश कागज के कुछ टुकड़े बन
चुका  पाती  तुम्हारा कर्ज  
दे पाती  तुम्हे एक जिंदगी
जैसी तुम चाहते हो
जानती हूँ जिंदगी जरूरत है
और जरूरतें जिंदगी ...........  


Saturday, June 15, 2013


अपनी   आखों में टिके आसमान से पूछें 
आज उसे घर नहीं जाना? 
उसकी माँ  राह देखती होगी
दरवाजे पर आस लगाये 
हर आने जाने वाले से 
पूछा होगा :
मेरा बेटा , आज लौटने का वादा करके 
रात गया था एक समंदर लाने घर को 
न जाने क्यों न   आया  अब तक 
क्या कोई ले आएगा उसको पास मेरे ...................






Friday, June 14, 2013

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