Wednesday, February 2, 2011

कल हो न हो .........................

कल हो न हो .........................
ख्वाहिशे इतनी की चाँद को कर लूँ अपनी मुट्ठी  में
सितारों की चादर तान लूँ अपने आसपास
तजुर्बा है की ख्वाहिशों के पर निकलने से कितने ही असमान छोटे पड़ जाते हैं
जानती हूँ " कल किसने देखा "
आज ही दामन को फैलाये बैठी हूँ
जैसे ही कोई कली खिले , एक भी किरण मुस्कुराये
तो हमारी झोली में ही आये .

1 comment:

डॉ० डंडा लखनवी said...

सराहनीय लेखन के लिए बधाई।
कृपया पर्यावरण और बसंत पर ये दोहे पढ़िए......
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गाँव-गाँव घर-घ्रर मिलें, दो ही प्रमुख हकीम।
आँगन मिस तुलसी मिलें, बाहर मिस्टर नीम॥
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शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी