Wednesday, October 28, 2009

परदेश

लक्खू की माँ कहती है , बेटा परदेश मत जा
तेरे पैदा होने के पहले गए थे तेरे बापू
आज तक नही लौटे ,
मगरे की बहन गई थी ब्याह कर शहर
कहते है बैठा दिया उसके पति ने उसको कोठे पर
मन्नू का भाई गया था एक बार
लौटा लेकिन वैसा नही जैसा गया था
शरीर , मन , आत्मा सब कुछ बेच आया
और ले आया ऐसा रोग जिसका कोई इलाज नही ,
बेटा ! यर शहर छीन लेते है हमसे हमारी पहचान
हमारी आवाज , हमारी इज्जत , हमारा विश्वास
और बदले में देते है हमें भूख की मज़बूरी में
हमारी आधे से भी कम कीमत ,
खुला आसमान , बूटो की मार , झोली भर भर गालियाँ और .....................
वह सब कुछ जो हम किसी को देने की कल्पना भी नही कर सकते...

4 comments:

अनिल कान्त said...

आपकी रचना बहुत अच्छी है जो की सामजिक भी है

Gaurav said...

इतना करीब से कब देखती है दुनिया अपने आस पास कि दुनिया को, शुक्र है कोई तो देखता है, और बेहतर बात ये कि आप ने बाँट भी लिया है...........

हरकीरत ' हीर' said...

बेटा ! यर शहर छीन लेते है हमसे हमारी पहचान
हमारी आवाज , हमारी इज्जत , हमारा विश्वास
और बदले में देते है हमें भूख की मज़बूरी में
हमारी आधे से भी कम कीमत ,
खुला आसमान , बूटो की मार , झोली भर भर गालियाँ और .....................
वह सब कुछ जो हम किसी को देने की कल्पना भी नही कर सकते...

बहुत सुंदर....!!

Amit K Sagar said...

शहर एक संघर्ष और कड़े संतुलन की परिणित है. जिसको आ गया उसे भा गया जिसको न आया वो आपकी रचना में है. शहर! वाकई इक चुनौती है!
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महिलाओं के प्रति हो रही घरेलू हिंसा के खिलाफ [उल्टा तीर] आइये, इस कुरुती का समाधान निकालें!